Panchayat Season 4 Review: क्या इस बार भी वही जादू चला या फीका पड़ा? जानिए पंचायत का पूरा रिव्यू

 

टीवीएफ की मशहूर वेब सीरीज 'पंचायत' का सीजन 4 प्राइम वीडियो पर स्ट्रीम हो गया  है. चुनाव की कहानी और किरदारों के विकास की कमी इसे निराशाजनक बनाती है। पर अगर आप इस वीकेंड ये सीरीज देखने की प्लानिंग कर रहे हैं, तो इससे पहले ये रिव्यू जरूर पढ़ें, ताकि आप तय कर सकें कि आपको ये सीरीज कब देखनी है, देखनी भी है या नहीं.





पंचायत….अमेजन प्राइम वीडियो की वो वेब सीरीज है, जिसे देखकर शहरी लोग भी गांव की खटिया पर लेटे हुए बिसरे हुए रिश्तों की बातें करने लगते हैं. 8 साल से लगातार दर्शकों के दिलों पर राज करने वाला ये शो अपने चौथे सीजन के साथ लौट आया है. ‘पंचायत’ ने पहले तीन सीजन में दिखा दिया था कि बिना गालियों, ग्लैमर या बड़े-बड़े ट्विस्ट के भी एक कहानी कैसे लाखों दिलों को जीत सकती है. लेकिन, अब जब सीजन 4 मैदान में है, तो सवाल ये है कि क्या फुलेरा वालों ने इस बार दिल जीता या बस पुराना स्वाद ही चखाया? आइए बिना किसी लाग-लपेट के सीधे मुद्दे की बात करते हैं.

पहले तीनों सीजन ने अपनी पहचान एक ‘कंफर्ट वॉच’ के रूप में बनाई थी, जो धीमी गति से चलती थी लेकिन अपने किरदारों और उनके छोटे-मोटे झगड़ों से दर्शकों को बांधे रखती थी. सीजन 1 में अभिषेक का गांव से तालमेल बिठाना, सीजन 2 में प्रधानी चुनाव की गहमागहमी और बनराकस का बढ़ता दबदबा, और सीजन 3 में प्रधान जी पर हमले का प्लॉट हर सीजन में कुछ खास था, जो कहानी को आगे बढ़ाता था. सीजन 4 में भी ये सब कुछ है, लेकिन क्या इस बार भी वो नयापन है, जो पिछले सीजन में था? इसका जवाब है – थोड़ा हां, थोड़ी ना!

कहानी

‘पंचायत’ के इस सीजन की कहानी मुख्य रूप से दो बड़े मुद्दों के इर्द-गिर्द घूमती है. एक तरफ फुलेरा में प्रधानी चुनाव की गरमागरमी, जहां मंजू देवी और क्रांति देवी (सुनीता राजवार) के गुट आमने-सामने हैं. दूसरी तरफ, अभिषेक त्रिपाठी (जितेंद्र कुमार) पर भूषण (दुर्गेश कुमार) द्वारा दर्ज कराया गया काउंटर FIR का दबाव. अभिषेक अपनी CAT परीक्षा के नतीजों और बिजनेस स्कूल में एडमिशन को लेकर बेहद चिंतित है, और उसके खिलाफ हुई एफआईआर उसकी उम्मीदों पर पानी फेर सकती है. अब आगे क्या होगा ये जानने के लिए प्राइम वीडियो पर रुख करना होगा और पंचायत सीजन 4 देखनी होगी.

जानें कैसी है सीरीज

पिछले 3 सीजन की तरह ‘पंचायत 4’ भी अपनी सादगी और किरदारों से मन मोह लेती है. सभी किरदारों की एक्टिंग हमेशा की तरह कमाल की है, और गांव का माहौल असली लगता है. पर कहानी थोड़ी धीमी है और नयापन कम है, जिससे कभी-कभी बोरियत हो सकती है. कुछ सीन बिना मतलब के लगते हैं. फिर भी, अगर आपको हल्की-फुल्की कहानी पसंद है, तो ये सीजन भी आपको अच्छा लगेगा.

निर्देशन

निर्देशक दीपक कुमार मिश्रा ने इस बार भी फुलेरा को बखूबी हमारे साथ पेश किया है. उनके निर्देशन की सबसे बड़ी खूबी है कि वो गांव की असलियत को बिना किसी बनावट के दिखाते हैं. दरअसल इस सीरीज की स्क्रिप्ट इसकी रीढ़ है. राइटर चंदन कुमार ने इस बार भी अपने काम को पूरा न्याय दिया है. इस सीरीज के डायलॉग इतने सहज हैं कि उन्हें सुनकर लगता है जैसे कोई पड़ोसी ही ज्ञान बांट रहा हो. छोटे-छोटे वाक्यों में बड़ी बातें कह देना, और हल्के-फुल्के लहजे में ही गहरी चुटकी लेना, यही ‘पंचायत’ की यूएसपी है. हालांकि जितना ध्यान उन्होंने डायलॉग्स पर दिया है, उतना ही कहानी पर देते, तो बात ही कुछ और थी.

एक्टिंग

पंचायत के सभी कलाकारों ने इस सीजन में भी अपनी एक्टिंग से दर्शकों का दिल जीता है. जितेंद्र कुमार अभिषेक त्रिपाठी के रूप में हमेशा की तरह शानदार हैं. उनकी स्क्रीन पर दिख रही चिंता और उनका ‘स्लो-बर्न’ रोमांस गांव के शांत माहौल से बिल्कुल मैच करता है. रघुबीर यादव प्रधान जी के किरदार में थक चुके हैं, लेकिन अनुभवी नेता के रूप में फिर से प्रभावशाली नजर आते हैं. नीना गुप्ता ने मंजू देवी के रूप में अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं को बखूबी दर्शाया है. विकास (चंदन रॉय) और प्रल्हाद (फैसल मलिक) हमेशा की तरह ईमानदारी से अपना काम करते हैं. दूसरी तरफ, भूषण, बिनोद और माधव और क्रांति देवी ने भी उनका पूरा साथ दिया है .

क्या पसंद आया

सादगी और देसी चार्म

गांव की मिट्टी से जुड़ी कहानियां, आम आदमी की परेशानियां और गांव की चौपाल पर होने वाली बातें, ये सब ‘पंचायत’ की नींव है. सीजन 4 में भी ये सादगी पूरी तरह से बरकरार है. आप शहरी भाग-दौड़ से निकलकर फुलेरा की शांत गलियों में खो जाते हैं. अगर आप सोच रहे हैं कि इस बार कुछ बड़ा तमाशा होगा, तो जनाब, ये ‘पंचायत’ है, कोई हॉलीवुड फिल्म नहीं! यहां सुकून मिलेगा, धमाका नहीं.

किरदारों का जादू

जितेंद्र कुमार (अभिषेक त्रिपाठी), रघुबीर यादव (प्रधान जी), नीना गुप्ता (मंजू देवी), चंदन रॉय (विकास) और फैसल मलिक (प्रहलाद) ये किरदार अब सिर्फ ऑनस्क्रीन कैरेक्टर नहीं, बल्कि हमारे घर-परिवार के लोग बन गए हैं. इनसे हमारा इमोशनल कनेक्शन इतना गहरा है कि चाहे कहानी कितनी भी धीमी रफ्तार से चले, इन्हें देखना नहीं छोड़ सकते. इनकी नोक-झोंक, एक-दूसरे के लिए फिक्र, और वो हंसी के पल… सब कुछ दिल को छू जाते हैं.

रोजमर्रा की जिंदगी की झलक

ये शो किसी फैंसी प्लॉट के पीछे नहीं भागता. यहां बात होती है गांव की छोटी-मोटी मुश्किलों की – कभी नल के पानी की, कभी बिजली के बिल की, कभी किसी की शादी की. यह रोज़मर्रा की जिंदगी की झलक है, जो इसे बेहद असली और रिलेटेबल बनाती है.

क्या है खामियां


नयेपन की कमी

इस सीजन में ऐसा लगता है कि मेकर्स अपनी ‘पंचायत’ वाली पहचान से थोड़ा बाहर निकलने से कतरा रहे हैं. कहानी में नया ट्विस्ट या कोई बड़ा बदलाव लाने के बजाय, वो उन्हीं पुराने पैटर्न पर चल रहे हैं. अगर आप तीन सीजन से देखते आ रहे हैं कि गांव की राजनीति में कैसे छोटे-छोटे दांव-पेच चलते हैं, तो यहां भी वही है. नयापन बहुत कम है, जैसे पुराने गाने की रिमिक्स सुनकर लगता है ‘मजा तो आया, पर ओरिजिनल जैसा नहीं!’

स्लो मोशन में चल रही है कहानी

‘पंचायत’ की धीमी गति उसकी खासियत है, लेकिन इस बार कई एपिसोड्स में ये सीरीज थोड़ी ज्यादा ही धीमी लगती है. ऐसा लगता है कि कहानी आगे बढ़ने के बजाय वहीं अटकी हुई है. अगर आप वो दर्शक हैं, जो हर एपिसोड में कुछ बड़ा होते देखना चाहते हैं, तो ‘पंचायत 4’ आपके धैर्य (पेशंस) की परीक्षा ले सकता है.

क्रिएटिविटी में नहीं है दम

कुछ जगहों पर, खास तौर पर पांचवें एपिसोड में मंजू देवी के पिता से जुड़ा सबप्लॉट, थोड़ा खींचा हुआ और बेमतलब लगता है. ऐसा लगता है जैसे बस एक एपिसोड भरना था, तो भर दिया. यह उप-कहानी मुख्य प्लॉट में कोई खास योगदान नहीं देती और थोड़ी बोझिल लगती है.

देखें या ना देखें 

कुल मिलाकर, ‘पंचायत सीजन 4’ एक ‘कंफर्ट वॉच’ है. इसमें भले ही ट्विस्ट या धड़ाके नहीं मिलेंगे, लेकिन ये सीरीज आपको लोगों की सच्ची मुश्किलों और इमोशंस वाली दुनिया में ले जाती है. अगर आप सुकून भरी, हल्की-फुल्की और जमीनी कहानियों के शौकीन हैं, तो ये सीजन आपको निराश नहीं करेगा. बस, बहुत ज्यादा उम्मीद न करें.